दो लफ्ज़

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जितने अपने थे सब पराए थे  हम हवा को गले लगाए थे जितनी क़समें थी सब थीं शर्मिंदा  जितने वादे थे सर झुकाए थे जितने आँसू थे सब थे बेगाने  जितने ...

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